Saturday 21 April 2018

मुस्लिम मुस्लिम भाई भाई(?)

इस्लामी भाईचारे का कच्चा चिट्ठा खोलती Abhijeet Singh भैया की शानदार पोस्ट
-------------------- -----
दावती अपनी तकरीरों में यह प्रलाप करते रहतें हैं कि उनका मजहब अकेला ऐसा मजहब है जो पूरी मानव जाति को एकता व भाईचारे के महान सूत्र में पिरो कर रख सकती है. उनका ये भी दावा है कि पूरा इस्लामी विश्व एक 'उम्मा' है, यही अकेला मजहब है जो विश्व में परस्पर शांति व सहअस्तित्व की भावना ला सकता है; इसलिये विश्व में अगर एकता ,स्थायी भाईचारा और अमन चाहिये तो सारे मानव-जाति का उनके मजहब की गोद में आना ही एकमात्र रास्ता है.

मुस्लिम उम्मा की अवधारणा और अपनी इस महान एकता का श्रेय वो अपने 'हिदायत ग्रंथ' को देंतें हैं. दुनिया भर के दावती भले ही ये दावा करतें हों कि उनकी हिदायत का एकमात्र जरिया उनकी किताब है और अपने हर मसले की रहनुमाई के लिये वो उसकी तरफ देखतें हैं मगर वास्तविकता ये है कि किताब को लब्ज़-लब्ज़न हिब्ज़ (याद) करना और रमजान के पूरे महीने भर उसकी तिलावत करना भी उनके किसी काम नहीं आता. उनकी किताब में आया है, "अल्लाह की रस्सी (कुरआन) को मजबूती से पकड़ो और आपस में फूट में न पड़ो" पर आलमी भाईचारे की बात करने वाले मुसलमानों में आपस में झगड़ा ही झगड़ा है. 'बुखारी शरीफ' में आया है- जो अपना दीने-इस्लाम तब्दील करे उसे कत्ल कर दो. (बुखारी, जि-3, हदीस-1814) जबकि हम आये दिन बहाबियो, शियाओं, अहमदियों आदि के कत्ल के बारे में सुनते रहते हैं जिसका कारण ये है कि हर फिरके को मानने वाला दूसरे फिरके के बारे में यही सोचता है कि वो दीन से फिर गया है इसलिये उसकी हत्या कर दी जाये. 'मुस्लिम उम्मा' की जिस अवधारणा के हवाले देकर वो सारी मानव-जाति को परस्पर एकता के लिये इस्लाम की गोद में आने का आमंत्रण देते रहतें हैं, ये अवधारणा कितनी खोखली है आगे के उदाहरणों से स्पष्ट हो जायेगा.

हर फिरका वाला अपने अलावे दूसरे फिरके को काफिर, बेदीन व राह से फिरा हुआ मानता है. पूरे आलम की बात तो छोड़ दें, उसके फिरका से इतर भावना रखने वाले किसी दूसरे मुसलमान को वह बर्दाश्त तक करने को तैयार नहीं है. स्थिति ये है कि मुसलमानों का आज कोई भी फिरका ऐसा नहीं बचा है जिसके मानने वालों को खुद मुसलमानों ने ही काफिर धोषित न किया हो. मसलन 

बहाबी काफिर:-  बहाबी खुद को सच्चा सुन्नी कहतें हैं जबकि बाकी सुन्नियों का मानना है वो मुसलमान ही नहीं हैं. पूरी दुनिया के 300 से अधिक सुन्नी-बरेलवी नेताओं ने एक फतवा जारी करके देवबंदियों अथवा बहाबियों के बारे में घोषित किया था वो काफिर हैं और साथ ही यह भी फतवा दिया था कि किसी सुन्नी के लिये जायज नहीं कि वो बहाबियों को अपनी लड़की निकाह में दे. अरब के हरमैन-शरीफैन से देवबंदियों के बारे में एक फतवा आया था जिसमें कहा गया था- 'जो कोई बहाबियों के काफिर होने में तथा इनके अजाब में शक करे वो खुद काफिर है' 

बरेलवी काफिर:- देवबंद के मोहम्मद सैयद मुहम्मद मुर्तजा ने भी अपने इसी तरह के एक फतवे में बरेलबियों के खिलाफ इसी तरह की बात कही थी. मुर्तजा ने बरेलबियों के धर्मगुरु 'अहमद रजा खान बरेलवी' के बारे में कहा था कि वो मुर्तद (धर्मभ्रष्ट) और काफिर हो चुकें हैं आौर वही दज्जाल हैं. गौरतलब है कि भारतीय महाद्वीप में बहुसंख्यक मुसलमान बरेलवी हैं.

जमाते-इस्लामी काफिर:- जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी (जिसके मानने वाले हिंदुस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश हर जगह मौजूद हैं) के बारे में कई मुस्लिम धर्मगुरुओं ने कहा है कि हुज़ूर ने जिन 30 झूठे नबियों की चर्चा की थी उसमें एक मौदूदी भी थे. मौदूदी पर दिये एक फतवे में कहा गया "इसमें कोई शक नहीं है कि मौलाना मौदूदी बर्बाद होने वालों में से है. मौलाना सैयद मौलवी मोहम्मद ने मुसलमानों से कहा था- "हदीसे-रसूल के अनुसार कयामत तब तक कायम नहीं हो सकती जब तक मेरी उम्मत में 30 झूठे न हो जायें, उसमें से एक मौदूदी के रुप में गुजर चुका".

अहले-हदीस काफिर:-  अहदे-हदीस के बारे में बहुत सारे मौलानाओं का फतवा है कि वो राह से भटक गयें हैं क्योंकि वो नमाज पढ़ने में वो तरीका अपनातें हैं जो मदीना के मुनाफिकों ने अपनाया था.

मजार पूजक काफिर:-  मुसलमानों में बहुसंख्यक मजारों पर हाजतें मांगने जातें हैं, परंतु बहाबी व अन्य कट्टरपंथी उन्हें पथभष्ट्र और राह से भटका हुआ मानतें है. जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी ने मजारों पर जाने वालों पर लानत भेजते हुये कहा था-' जो लोग हाजतें मांगने अजमेर या फिर सैयद सालार मसउद गाजी के मजार पर जातें हैं वो गोया इतना बड़ा गुनाह करतें हैं कि उस गुनाह के आगे किसी को कत्ल कर देना या किसी लड़की से जिना करना भी कमतर है. (तजदीदो इहएा-ए-दीन, सफा नं0-96, मौलाना मौदूदी, मर्कजी मकतबा इस्लामी)

शिया काफिर:-  बहाबियों और सुन्नियों के दूसरे फिरकों ने शियाओं को काफिर घोषित कर रखा है इसके उलट शिया ये मानतें हैं कि सुन्नी काफिर है क्योंकि इन्होनें कुरान को बदल दिया. शिया-सुन्नी के बीच के झगड़ों का अपना इतिहास है जिसके कारण आज तक लाखों मुसलमान मारे गयें हैं. पाकिस्तान, ईराक, अफगानिस्तान, लेबनान आदि देशों में हर बर्ष हजारों लोगों का इसी कारण कत्ल होता है. अरब मुमालिक में तो बहाबी प्रभाव के कारण शियाओं को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है. बहाबियों ने अपने फतवों में ये घोषित कर रखा है कि शिया रक्त हलाल है क्योंकि ये न केवल प्रथम तीन खलीफा की खिलाफत का इंकार करतें हैं. शियाओं को वहां न तो मस्जिद बनाने का अधिकार है और न ही अपने किसी मस्जिद के विस्तार करने का. 

अहमदिया काफिर:-  यह फिरका पंजाब के गुरुदासपुर जिले के कादियान नामक स्थान पर शुरु हुआ था. इसके संस्थापक ने खुद को नबी घोषित किया था जिसके कारण मुसलमानों के बाकी फिरके कादियानियों को काफिर मानतें हैं. पाकिस्तान में इनकी सबसे ज्यादा तादाद है मगर वहां इन्हें गैर-मुस्लिम समझा जाता है तथा आये दिन वहां इन पर जुल्म किये जाते है. इनलोगों के हज करने पर भी पाबंदी है.

संभवतः रसूल साहब जानतें थे कि उसके उम्मती उनके जाने के बाद आपस में कत्लेआम करेंगे इसलिये इसकी भबिष्यवाणी उन्होंने पहले ही कर दी थी. एक हदीस उक्बा बिन आमिर की रिवायत है, वो कहतें हैं कि एक बार हुज़ूर ऊहद के शहीदों के लिये नमाज पढ़ चुके तो कहा कि मुझे इस बात का डर नहीं है कि मेरे बाद तुम अल्लाह के साथ किसी को शरीक करोगे मगर मुझे डर है कि तुम नाहक की बातों पर एक-दूसरे का खून बहाओगे. (बुखारी, कि-2, जि0-23, हदीस-428)

इस खूनी जंग और वहशत का अपना इतिहास है जिसके कई उदाहरण हैं:- 

- मुस्लिम मुल्क पाकिस्तान में इस्लाम के कई पंथों को मानने वाले ही सुरक्षित नहीं है. वहां पर गौहरशाही व अहमदिया आदि मुस्लिम समुदायों को काफिर ठहराया जा चुका है तथा आये दिन उनका कत्लेआम चलता रहता है. शियाओं का कत्लेआम तो आम बात है.

 भारत में देबबंदी व बरेलबियों के बीच भी आपस में जर्बदस्त नफरत हैं. मुहर्रम के मौके पर लखनऊ समेत कई शहरों में इनके बीच झड़पें होती रहती है.

- हदीस में आया है है कि किसी भी मुसलमान पर किसी दूसरे मुसलमान का कत्ल हराम है मगर बाबजूद इसके युगांडा के ईदी अमीन, इराक के सद्दाम हुसैन व लीबिया के कर्नल गद्दाफी ने अपने ही हजारों देशवासियों (मुसलमानों) का कत्ल करवाया. शियाओं के सम्मान का मर्कज़ करबला को अपमानित करने का प्रयास सद्दाम हुसैन ने किया था.
 
-1980 का पूरा दशक दो मुसलमान मुल्कों के बीच के युद्ध में ही गुजरा है.

- ईरान में अयातुल्ला खुमैनी ने इस्लामी क्रांति के नाम पर हजारों मुसलमानों को मरवा दिया था.

- गाजी सलाउद्दीन को इस्लाम का त्राता कहा जाता था पर उसी के कुर्द वंश के खिलाफ सद्दाम हुसैन ने दमनचक्र चलाया था.

-सर्वइस्लामवाद की बात करने वाले कई इस्लामिक मुल्क यथा कुवैत, अरब, जोर्डन, ईरान आदि कई देश 1962 आते-2 एक दूसरे से घोर नफरत करने लगे तथा 1971 में एक इस्लामी मुल्क पाकिस्तान के बर्षों के दमन से पीड़ित बांग्लादेश ने मुक्ति युद्ध छेड़ दिया. मुस्लिम विश्व के एकता की बात हवा में उड़ गई.

- इराक और कुवैत का आपसी संघर्ष इस्लामी आलमी भाईचारे के दावों का माखौलपहले ही उड़ा चुकी है.

स्पष्ट है दुनिया के दूसरे धर्मो को मानने वाले को आलमी भाईचारे की सीख देने वाले खुद के झगड़ों में ही इतने उलझे हुये हैं जिसकी कोई हद नहीं है. 73 फिरकों में बंटे मजहब का कोई भी फिरका दूसरे फिरके को फूटी आंख नहीं सुहाता. एक-दूसरे को काफिर साबित करने की उनमें ऐसी होड़ लगी हुई है कि आज कोई भी फिरका ऐसा नहीं बचा है जिसे किसी दूसरे फिरके ने काफिर, बेदीन और मुर्तद न धोषित किया हो और दावा यह कि हम दुनिया में अमन कायम करेंगें.

No comments:

Post a Comment