Friday, 16 March 2018

अर्थशास्त्र सुधार की संभावनाएं।

मुद्रा विनिमय और वस्तु विनिमय के बीच समन्वय स्थापित किये वगैर भारत और अन्य प्रगतिशील देशों की आर्थिक प्रगति सम्भव नहीं ।भारत की रग-रग में वस्तु विनिमय प्रणाली समायी हुई है ।मुद्रा के प्रवेश के साथ ही भ्रष्टाचार का प्रवेश हुआ है सारे विश्व में ,भारत में भी ।
                         ग्राम्य संस्कृति अभी भी मुद्रा को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पायी है ।मज़दूरी के रूप में मुद्रा का पदार्पण एक नयी चीज़ है भारत के गाँवों में ।वहाँ तो चावल चलता था मज़दूरी में ।लेकिन जब चावल का सम्बन्ध मुद्रा से जुड़ गया ,तब इसका महत्त्व घट गया ।
                         सरकार ने कभी सोचा ही नहीं कि ग्राम्य मजदूरों के लिये मुद्रा की जगह अनाज की मज़दूरी निर्धारित की जाये ।अब गाँव के किसान अपने खेतों में काम करने वाले मजदूरों को मज़दूरी देने के लिये बाजार के अधीन हो गये ,क्योंकि अनाज के बदले में मुद्रा तो बाजार में ही मिल सकती है ।इसतरह खेती बाजार पर निर्भर हो गयी ।
                          किसान खाद खरीदते हैं ,पेस्टीसाइड खरीदते हैं ,लेकिन अनाज देकर नहीं ,मुद्रा देकर ।यह गलत है ।किसानों को अनाज के बदले में खेती के सारे सामान  मिलने चाहिये ।जमीन ,अनाज और पानी की कोई कीमत नहीं होती ।इनकी कीमत को माँग और पूर्त्ति के समीकरण में बाँधना सही नहीं है ।
                     किसानों के बेटे-बेटी पढ़ने के लिये जब शहरों में जाते हैं ,तब उन्हें जो अहसास होता है ,वह प्राचीन वैदिक मानसिकता को विनष्ट कर देने के लिये पर्याप्त होता है ।भला शहर को वेद से क्या मतलब ,उसकी तो स्थापना ही वेद के विरोध में हुई थी ।जिसतरह मछली पानी से बाहर जाकर दम तोड़ देती है ,उसीतरह किसान की संतान शहरों में बिखर जाती है ।
                                मजबूर न हों किसान के बेटे शहरों में जाने के लिये -ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये ।
                          यह तभी सम्भव होगा जब   मुद्रा का  समाज पर एकाधिपत्य ख़त्म हो जायेगा । ।

भारत जब तक आर्थिक , शासकीय , मानसिक गुलाम नहीं हुआ था तो ग्रामीण संस्था बर्टर अर्थव्यवस्था से चलती थी /
जो लोग कृषि और उत्पाद का काम करते थे - वे समाज के अन्य उपांगो , चाहे वो शिक्षा देने वाले ब्रामहन हो , या फिर समाज के अन्य उपांग , धोबी , नाई हो , उनके लिए साल मे हर फसल के बाद उनका - अग्रहारक निकाल दिया जाता था , फसल के घर तक पहुँचने के पूर्व / हमारे अवधी मे उसे #अंगऊ कहते थे /
ये तो था #Barter_सिस्टम /
बाकी जो उत्पाद एक्सपोर्ट होते थे , उनका दाम नकद या सोने चांदी मे 2000 साल से वसूला जाता था / 
एक्सपोर्ट मटिरियल क्या ब्रामहन  क्षत्रिय या वैश्य वृत्ती के लोग तैयार करते थे ?

जी नहीं /
ये शूद्र वृत्ती के लोग करते थे / 

जय हो /
समझ मे आया क्या ?

भारत का आर्थिक इतिहास विश्व के आर्थिक इतिहास का हिस्सा नहीं हैं। 
विश्व का आर्थिक इतिहास भारत के आर्थिक इतिहास का हिस्सा है - अमिय बागची ( आर्थिक इतिहासकार).

तो इस आर्थिक इतिहास का मॉडल क्या था? 
वैदिक इकोनॉमिक मॉडल।
वो क्या है ?
मैन्युफैक्चरिंग by Maases अर्थात आमजन द्वारा उत्पादन। 

भारत को लूटकर इस मॉडल को नष्ट करके जिस मॉडल का विकास हुवा उसको कैपिटलिस्ट मॉडल ऑफ इकॉनमी कहते हैं। इसका काउंटर करता है मार्क्सिस्ट मॉडल। लेकिन दोनों एक ही हैं - प्रोडक्शन फ़ॉर masses. पहले में कोई व्यक्ति मॉलिक हो सकता है, दूसरे में सरकार, जिनको 1% लोग 73% धन के मॉलिक है टाइप से कुछ बोला जा रहा है। 
सोशलिस्ट नेहरू मॉडल में भी आज एक परिवार और उसके पालतुओं के पास ही सबसे ज्यादा धन है वो भी बिना मैन्युफैक्चरिंग और व्यापार के।

अगर कुछ करना ही चाहते हो तो वैदिक मॉडल की बात करो । 

#स्मार्ट_गावँ बनाने हेतु मात्र 200 साल पुराने वैदिक इकनोमिक मॉडल को पुनर्जीवित करना संभव है।
कैपिटलिस्ट सोशलिस्ट मॉडल के साथ ये भी चले।

यही स्वरोजगार सृजित करेगा।
पढिये तो 


सनातनी इकनोमिक मॉडल

PMO India के नाम एक खत :
मोदी जी आपको पता है कि चाहे कैपिटलिज़्म हो या फिर सोसियलिस्म - दोनों का मूलमंत्र एक ही है - मास प्रॉडक्शन, और हमको यही एक मात्र मोडेल समझ मे भी आता है / आपके एक कार्यकर्ता #Sanjay_pasawan जी ने सनातन मोडेल ऑफ इकॉनमी के बारे मे रुचि प्रकट की थी /
वही आप अपने देश के आर्थिक इतिहास उठाकर देखिये , सनातन मोडेल ऑफ इकॉनमी का अर्थ है - Production By Masses / और यही भारत के गरीबी और बेरोजगारी उन्मूलन का एकमात्र विकल्प भी है / नीचे 1901 मे छपी पुस्तक इकनॉमिक हिस्टोरी ऑफ इंडिया - रोमेश दुत्त कि पुस्तक से कुछ स्नाप शॉट लिए हैं , जिनमे आपको एक मोटे तौर पर उस इकॉनमी का वर्णन है / क्या हम ये व्रत नहीं ले सकते कि हम विश्व को पुनः हस्त निर्मित वस्त्रों से ढँक देंगे ?
 
1807 का यह डाटा बताता है कि 1807 तक सूट कातने का काम हर घर की हर कास्ट की ,  स्त्री करती थी / और कब ? दोपहर बाद आराम के छड़ों मे / और उससे प्रति स्त्री को सालाना 3 -7 रुपये की कमाई उस समय होती थी , जो उसके पारिवारिक आय के श्रोत को बढाती थी , और साथ मे उसको  घर और समाज मे सम्मान  भी दिलवाती थी / प्रत्येक जिले मे उसके क्षेत्रफल के अनुसार 4500 - 6000 तक छोटे छोटे लूम होते थे , जिनको  मात्र एक स्त्री और एक पुरुष मिलकर चलाते थे और 30- 60 रुपये प्रतिवर्ष की कमाई करते थे /
जहां तक मुझे पता है आज एक जिले मे इतने ही ग्राम समाज है ,जितने लूमों कि संख्या मैंने लिखा है /

क्या यह असंभव कार्य है कि सनातन के इस मोडेल को पुनर्जीवित किया जा सके / मेरा मानना है कि इस मोडेल का आधुनिकीकरण कर हर घर मे पुनः स्पिननिंग शुरू किया जा सकता है / थोड़ा कष्टसाध्य और मुश्किल अवश्य लगता है , परंतु संभव है /
क्या #मनरेगा , जिसके तहत कच्चा काम किया जा रहा है , और जिसमे आज भयानक लूट मची है , ऐसा बहुतों का मानना है , से इस योजना को जोड़कर घर घर गाव गाव स्पिननिंग नहीं शुरू किया जा सकता ?
शायद कपास की कमी की बात आए , तो हमे भूलना नहीं चाहिए कि अगर अंग्रेज़ इस देश से कच्चा कॉटन और सिल्क इम्पोर्ट कर , मैंचेस्टर से फ़ैक्टरी निर्मित कपड़ो से भारत को भर सकता था , तो हम भी ये काम कर सकते है /
क्या हर गाव समाज मे एक #सोलर_लूम से इन सूतो को वस्त्र निर्माण मे नहीं लगाया जा सकता / MNREGA का  शायद  इससे अच्छा इश्तेमाल  नहीं हो सकता / 

एक बात और  - आप जानते हैं कि भारत की कुल जीडीपी का 18% कृषि से , 18% सरकार से , मात्र 14% कॉर्पोरेट से आता है , बाकी 50% अभी भी स्वरोजगार से आता है / तो इस स्वरोजगार मे बृद्धि कीजिये / निर्माण भी होगा , रोजगार भी बढ़ेगा , नारी का शशक्तीकर्ण भी होगा , और गाव से पलायन भी बंद होगा / गाव के लोग भी शहरों की मलिन बस्तियों मे रहना बंद कर वापस गाव कि ओर लौटेंगे /
बंदे मातरम /

वैदिक मॉडल से स्टील बनाने का वर्णन हैमिलटन बुचनन ने किया है।

इसमे एक करेंसी है #Fanam ।

ये दक्षिण भारत की 1807 की करेंसी है।

कोई इसके बारे में बता सकता है ?

साभार
डॉ त्रिभुवन सिंह

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