Sunday 11 February 2018

जातिवाद_बनाम_ब्रिटिश कूटनीति_पार्ट1


#जातिवाद_बनाम_ब्रिटिश कूटनीति_पार्ट1
लेखक - देवेंद्र  स्वरूप ( पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक )

इस स्वाधीन भारत ने जाति-विहीन समरस राष्ट्र जीवन खड़ा करने का लक्ष्य सामने रखकर अपनी यात्रा आरंभ की थी, 63 वर्ष बाद उसका सार्वजनिक जीवन अब जाति की धुरी पर घूम रहा है। इसे भारतीय राष्ट्रवाद की विजय कहें या ब्रिटिश कूटनीति की? 1905 के बंग-भंग विरोधी आंदोलन में से उभरी राष्ट्रीय एकता की भावना से चिंतित होकर तत्कालीन गृह सचिव एच.एच.रिज्ले ने 1909 में "पीपुल आफ इंडिया (भारत के जन) नामक पुस्तक प्रकाशित की। इस पुस्तक के अंतिम अध्याय का शीर्षक है "कास्ट एंड नेशनेलिटी" (जाति और राष्ट्रीयता)। इस अध्याय में रिज्ले ने बड़ी चतुराई से प्रतिपादन किया है कि भारत में राष्ट्रीयता के उभार का प्रतिरोध जाति नामक संस्था में ही विद्यमान है। भारत में जातिवाद को पैदा कराने, विभिन्न जातियों को परस्पर प्रतिस्पर्धी और विरोधी बनाने में रिज्ले जैसे ब्रिटिश कूटनीतिज्ञों की बड़ी भूमिका है। रिज्ले ने ही 1886 में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर के नाम एक पत्र लिखा था कि जनजातियों का तेजी से ब्रााहृणीकरण हो रहा है। यह स्थिति भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हित में नहीं है। इसे रोकना ही होगा और इसका उपाय उसने सुझाया कि यूरोप में नई-नई जन्मी नृवंशिकी विद्या, जिसमें सिर, नाक आदि के आकार की नाप तौल करके मनुष्य की नस्ल की पहचान की जा सकती है, का भारत में प्रयोग करके भारतीय समाज को नस्ली आधार पर विभाजित किया जा सकता है। रिज्ले के इस सुझाव पर काफी लम्बी बहस चली। अंतत: उसे स्वीकार करके "एथनाग्राफिक सर्वे आफ इंडिया" (भारत का नृवंशीय सर्वेक्षण विभाग) बनाया गया, जिसके पहले निदेशक पद पर रिज्ले की नियुक्ति हुई।

#फूट डालो और राज करो
रिज्ले के निर्देशन में इस विभाग ने पूरे भारत को क्षेत्रों में विभाजित कर जातियों और जनजातियों का नस्ली आधार पर अध्ययन और सूचीकरण कराया। आर्य आक्रमण सिद्धांत को जातियों के वर्गीकरण का मुख्य आधार बनाया गया। इस सिद्धांत के आधार पर रिज्ले आर्य-अनार्य जातियों की पहचान के लिए सिर, आंख, नाक व चेहरे की पहचान के मानक निर्धारित किए। इस सर्वेक्षण के फलस्वरूप निर्माण हुए बीसियों विशाल ग्रंथ आज भी हमारे विश्वविद्यालयों में संदर्भ ग्रंथ बने हुए हैं। यही रिज्ले 1901 की जनगणना का भारतीय जनगणना आयुक्त नियुक्ति किया गया। उस जनगणना में उसने पहली बार- "जातियों की सामाजिक ऊंच नीच" का समावेश किया। इसके अंतर्गत जनगणनक पहले जाति का नाम पूछता था, फिर पूछता था कि आपकी जाति फलानी जाति से ऊंची है या नीची? इस प्रकार रिज्ले ने जनगणना का उपयोग कर विभिन्न जातियों के बीच ऊंच-नीच की स्पर्धा पैदा की। उसी की प्रतिक्रिया स्वरूप अनेक जातियों ने अपनी जातीय सभा का गठन कर अपने को ऊंचा सिद्ध करने का अभियान प्रारंभ किया। 1911 की जनगणना के भारतीय जनगणना आयुक्त ई.ए.गेट्स ने छुआछूत के आधार पर हिन्दू समाज में एक विभाजन रेखा बनाने के लिए एक प्रश्नावली जारी की। पर, वह सफल नहीं हुई क्योंकि हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था में एक श्रृंखला- बद्धता दिखाई देती है, जिसके अनुसार रोटी-बेटी संबंध के आधार पर प्रत्येक जाति ने अपनी मर्यादाएं तय कर ली थीं। स्पृश्यता अस्पृश्यता के आधार पर समाज को कोई एक सीमारेखा खींचकर विभाजित करना संभव नहीं था।
भारत में जातिवाद के वर्तमान स्वरूप को समझने के लिए ब्रिटिश जनगणना नीति का सूक्ष्म अध्ययन बहुत आवश्यक है। उन्होंने 1871 में दस वर्षीय जनगणना का सूत्रपात किया। तभी 1881 की जनगणना के जनगणना आयुक्त डब्ल्यू.सी.प्लाउडेन का सुनिश्चित मत बना कि जाति के आधार पर जनगणना कराना बहुत दुरूह और निरुपयोगी है। 1885 में आगरा में ब्रिटिश जनगणना विशेषज्ञों का एक दस दिवसीय सम्मेलन हुआ। इसके सामने मुख्य विषय था कि जाति आधारित जनगणना करायी जाए या नहीं। साम्राज्यवादी तर्क जाति की गणना के पक्ष में थे, सभ्यतामूलक तर्क उसके विरुद्ध। इतिहास का यह एक महत्वपूर्ण संयोग है कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना और विस्तार के साथ-साथ ही तकनालॉजी की क्रांति हुई जिसने एक नई औद्योगिक सभ्यता को जन्म दिया। इस सभ्यता ने नई जीवनशैली, नई अर्थ रचना और सामाजिक संबंधों की नई रचना की। परंपरागत जाति व्यवस्था के जो सामाजिक और आर्थिक आधार थे वे शनै:शनै: शिथिल होने लगे। अर्थ के क्षेत्र में नये व्यवसायों, नई नौकरियों के द्वार प्रत्येक जाति के लोगों के लिए खुलने लगे। रेल यात्रा आदि के कारण सामाजिक संबंधों का रूप भी बदलने लगा। अंग्रेज शासक इस सत्य को जानते थे। उनको दिख रहा था कि आधुनिक सभ्यता के प्रभाव में जातिभेद की परंपरागत दीवारें शिथिल होकर ढह जाएंगी और भारत में एक समरस राष्ट्रीय समाज जीवन का प्रादुर्भाव संभव है। पर, यही तो है जो वे नहीं चाहते थे। भारत में अपने शासन की आयु को लम्बे से लम्बा खींचने के लिए आवश्यक था कि भारत की विविधता को समरसता के सूत्र में बंधने के बजाय अधिकाधिक गहरा और प्रतिस्पर्धी बनाया जाय।
"फूट डालो और राज करो" की अपनी इस कूटनीति को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने जनगणना नीति और तथाकथित स्पर्धा का भाव पैदा किया और संवैधानिक सुधार प्रक्रिया की प्रत्येक नई किश्त के द्वारा उन्होंने मजहब और जाति के आधार पर पृथक राजनीतिक प्रतिनिधित्व की भूख जगाई। बंग-भंग विरोधी आंदोलन के उग्र रूप से भयभीत होकर उन्होंने 1909 के भारत "काउंसिल एक्ट" में मुसलमानों को पृथक निर्वाचन का अधिकार देकर भारत विभाजन के बीज बोए। 1919 के एक्ट में उन्होंने सिखों को पृथक निर्वाचन का अधिकार देकर उन्हें अपने हिन्दू मूल से काटने और उसका प्रतिस्पर्धी बनाने का कुचक्र रचा। 1935 के एक्ट में वे शेष हिन्दू समाज में जाति के आधार पर स्थाई विभाजन रेखा खींचना चाहते थे किंतु साम्प्रदायिक निर्णय के विरुद्ध गांधी जी के आमरण-अनशन के कारण वह प्रयास सफल नहीं हो पाया। किंतु उसी पूना एक्ट में से आरक्षण सिद्धांत का भस्मासुर पैदा हुआ जो आज भारतीय समाज और राजनीति को जातीय आधार पर विखंडित कराने का मुख्य हथियार बन गया है।
जाति और जनपद चेतना हमें परंपरा से विरासत में मिली है। हम उसे पूरी तरह नकार नहीं सकते। किंतु जाति और जनपद चेतना का राष्ट्रीयता की उच्चतर चेतना में उन्नयन कराने का प्रयास भारतीय मनीषी सैकड़ों साल से करती आ रही है। पहले हमने भौगोलिक और सांस्कृतिक धरातल पर अखिल भारतीय चेतना को विकसित किया। वही हमारी राष्ट्रीयता की आधार भूमि बनी। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में चक्रवर्ती क्षेत्र की व्याख्या करके राजनीतिक एकता का लक्ष्य हमें प्रदान किया। ब्रिटिश काल में यातायात, परिवहन और संचार के नये द्रुतगामी साधनों के विस्तार से अ.भा.प्रशासनिक व राजनीतिक एकता को ठोस आधार प्राप्त हो गया। किंतु ब्रिटिश शासकों ने अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए तो इस एकता का उपयोग किया पर अपनी कूटनीति के द्वारा समाज के नाते हमें खंड-खंड करने की स्थिति पैदा कर दी। उन्होंने हमारी विविधता का सूक्ष्म अध्ययन किया। इस विविधता को जोड़ने वाले और परस्पर विरोधी बनाने वाले सूत्रों की पहचान की। जोड़ने वाले सूत्रों को दुर्बल किया, परस्पर विरोधी बनाने वाले तत्वों का पोषण किया।

#विभाजनकारी_दीवार
1909 के काउंसिल एक्ट में उन्होंने पहली बार निर्वाचन की प्रक्रिया का समावेश किया। उस समय इंग्लैंड में भारत से सेवा निवृत्त होकर लौटने वाले अंग्रेजों ने अपना एक अलग क्लब बना रखा था। इस क्लब में 1909 का विधेयक पास होने के पूर्व एक चर्चा की गई जिसका विषय था कि भारत में निर्वाचन प्रक्रिया के भीतर से क्या निकलेगा? उस चर्चा में भाग लेते हुए बंगाल कैडर के एक सेवानिवृत्त अधिकारी दुशांबे ने बहुत विस्तृत विश्लेषण करके बताया कि भारत में निर्वाचन प्रणाली आरंभ होने पर मतदान जाति आधारित होगा। जिस क्षेत्र में जो जाति शक्तिशाली होगी वह दूसरी कमजोर जातियों को मतदान नहीं करने देगी। 1918 में जब मांटेग्यु-चेम्सफोर्ड दस्तावेज प्रकाशित हुआ तो उसके परिणामों का विश्लेषण करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार विंसेंट स्मिथ ने जनवरी 1919 में एक छोटी सी पुस्तिका प्रकाशित की जिसे शीर्षक दिया "इण्डियन कांस्टीट्यूशनल रिफाम्र्स: व्यूड इन दि लाईट आफ हिस्ट्री" (भारतीय संवैधानिक सुधार:इतिहास के आलोक में) पुस्तिका के प्राक्कथन में स्मिथ ने दावा किया कि आई.सी.एस.के नाते मैंने 29 साल तक भारत में नौकरी की है और भारत सरकार के प्रत्येक विभाग में काम करके भारतीय यथार्थ को निकट से देखा है और अपने जीवन में पचास वर्ष इतिहास के एक विद्यार्थी के नाते लगाकर मैंने इस यथार्थ के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया को समझने की कोशिश की है। पुस्तिका के तीसरे अध्याय में विंसेंट स्मिथ लिखता है कि इस दस्तावेज के लेखकों का दावा है कि चुनाव प्रक्रिया से गुजर कर ही भारतीय समाज युगों पुरानी विभाजनकारी दीवारों को ढहाकर एकरस जीवन खड़ा कर सकेगा। स्मिथ ने लिखा है कि या तो इन पंक्तियों के लेखकों को भारतीय समाज का ज्ञान नहीं है या वे अपने पाठकों को जानबूझकर गुमराह कर रहे हैं। आगे बहुत विस्तार से जाति संस्था का विश्लेषण करके स्मिथ लिखता है कि इस निर्वाचन प्रणाली में से कोई एक संस्था मजबूत होकर बाहर निकलेगी तो वह जाति संस्था होगी। 1935 के संविधान को इंग्लैंड में जिस संयुक्त संसदीय समिति ने अंतिम रूप दिया उसने भी अपनी रपट में लिखा है कि ब्रिटेन में संसदीय प्रणाली की सफलता के जो कारक माने जाते हैं उनमें से एक भी भारत में प्राप्य नहीं है। ऊपर से भारत में जाति संस्था है जिसकी संसदीय लोकतंत्र के साथ कोई संगति नहीं बैठती।
1857 की महाक्रांति के बाद से अंग्रेज शासकों ने भारत में जिस तथाकथित संवैधानिक सुधार प्रक्रिया को आगे बढ़ाया, उसकी प्रत्येक किश्त (1861, 1882, 1892, 1909, 1919 व 1935) के समय ब्रिटिश शासकों एवं बौद्धिकों के बीच जो आंतरिक बहस हुई उसका स्वाधीन भारत ने यदि गहरा अध्ययन किया होता तो उसे पता चलता कि 1935 के ब्रिटिश संविधान पर आधारित इस संविधान को हमने 1950 में अपनी कृति समझकर अपनाया उसमें से पिछले 63 वर्षों में विखंडन, भ्रष्टाचार, सत्तालोलुप स्वार्थी, सिद्धांतहीन राजनीति का जो दृश्य खड़ा हुआ है उसे ब्रिटिश शासकों ने स्पष्ट देख लिया था। प्रश्न यही है कि हम क्यों नहीं देख पाए? 1857 की क्रांति की विफलता के बाद भारत की राजनीति ब्रिटिश या यूरोपीय राजनीति की अनुकृति बन गयी थी। पहली बार गांधी जी ने राजनीति की पहल अंग्रेजों से छीनी और भारतीय राष्ट्रवाद में संस्कृति व आध्यात्मिक चेतना को उद्धृत करके पहली बार राजनीतिक धरातल पर एक विशाल अखिल भारतीय जनांदोलन खड़ा किया। उन्होंने राष्ट्रवाद को ब्रिटिश संवैधानिक सुधार प्रक्रिया से बाहर निकालने की कोशिश की, राजनीति को सत्तामुखी होने के बजाय समाजमुखी बनाया। पर अंतत: कूटनीति की शतरंज में 1931 का गांधी-इर्विन समझौता, गांधी जी का गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित होना व 1935 का पूना पैक्ट गांधी जी की राष्ट्रनीति पर ब्रिटिश कूटनीति की विजय बन गया। 

कितनी हास्यास्पद स्थिति है कि अंग्रेजों ने आर्य आक्रमण सिद्धांत के आधार पर सन् 1880 में फार्वर्ड, बैकवर्ड, दलित और जनजाति जैसी जो कृत्रिम विभाजन रेखाएं खींची वही आज भारतीय राजनीति में नियामक बन गयी हैं। इन रेखाओं को समाप्त करने के लिए आर्य समाज, गांधी जी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राष्ट्रीय भावना को जगाने का जो भागीरथ प्रयास किया, वह निरर्थक जाता प्रतीत हो रहा है।


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