ऋग्वेद मे ही कई महिला विद्वानो, शिक्षिकाओ का जिक्र है इनके लिखे मंत्र है।
लोपामुद्रा, गार्गी, घोषा, मैत्रेय आदि इनमे मुख्य है।
आनन्दी गोपाल जोशी 1865 मे पैदा हुई MD डाक्टर थी।
कादम्बनी गांगुली 1861 मे पैदा हुई MBBS डाक्टर थी।
चंद्रमुखी वसु को 1882 मे ग्रेजुएट डिग्री मिली थी।
सरोजनी (चटोपाध्याय) नायडू born 1879 सुप्रसिद्ध कवित्री थी। 1947 मे सयुक्त प्रांत ( अब UP) की गवर्नर थी।
आजादी की लडाई मे भाग लेने वानी अनोको अनगिनत पढी लिखी महिलाये है जिनमे भीखाजी कामा रूस्तम, प्रितिला वाड्डेदार, विजयालक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृत कौर, अरूणा आसिफ अली, सुचेता कृपलानी, मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख, कैप्टिन लक्ष्मी सहगल आदि और जाने कितनी ही अनगिनत है।
सरला (शर्मा) ठकराल 1936 मे विमान पायलेट का थी।
जाॅन बेथुन ने 1849 मे कोलकाता मे पहले केवल महिलाओ के लिये कालेज की स्थापना की थी।
1916 मे मुम्बई मे पहली महिला यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी जिसके तीन कैम्पस थे। और अनेक महिला कालेज इससे सम्बधित भी हुई।
पंडिता रमाबाई को शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र मे योगदान के लिये ब्रिटिश सरकार द्वारा 1919 मे केसरी ए हिन्दी मेडल दिया गया था।
6 फरवरी 1932 को बीना दास ने कन्वोकेशन मे डिग्री लेते समय ही गवर्नर को गोली मारी थी।
इसके अलावा अंग्रेजी समय और मध्य काल मे भी विभिन्न रियसतो और राज्यो की शासक महिलाये हुई है। जिन्होने सेना की कमान भी सभाली और विभिन्न युद्धो मे भाग भी लिया।
संविधान बनने के समय मे संविधान सभा मे भी अनेको पढी लिखी महिला मेम्बर भी थी। जिनमे कि हंसा मेहता ने हिन्दू कोड बिल सदन मे रखते ही अम्बेडकर को महिलाओ के प्रति दुराग्रह और बिल मे कमियो को लेकर लताड भी लगाई थी।
फिर भी कुछ आरक्षण से आधे पढे लिखे विद्वान इस तरह का दावा करते फिरते है मानो 1950 से पहले इस देश मे कोई पढी लिखी स्त्री नही थी। ।
जबकि 1951 की जनगणना मे इस देश मे साक्षर लोगो की संख्या ही 15% थी। मतलब की पढे लिखे लोग 1951 तक 4-5% से अधिक नही थे। महिलाये ही नही पूरे देश मे पढे लिखे लोगो की कुल संख्या ही बहुत कम थी। इन आरक्षित अनपढ लोगो ने इन्टरनेट पर गलत जानकारी का अम्बार लगाया हुआ है।
✍🏻
अजातशत्रु पण्डित
पिछले 50 साल में भारत की क़रीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं. 50 साल पहले 1961 की जनगणना के बाद 1652 मातृभाषाओं का पता चला था. उसके बाद ऐसी कोई लिस्ट नहीं बनी.... अबकी बार बडौदा की पब्लिक लिंगविस्टिक सर्वे के समन्वयक प्रो. गणेश देवी के आह्वान पर मैं ने सलूंबर-धरियावद क्षेत्र में बोली जाने वाली धावडी बोली पर सर्वेक्षण प्रतिवेदन तैयार किया है। यह पहला मौका होगा जबकि मेवाडी ही नहीं, राजस्थानी की एक सहायक बोली को पहचाना जाएगा। यह विशेषकर उन जनजातीय जनों की हैं, जो आजतक इसको सहेजे हुए हैं। इसमें गीत, कथा ही नहीं, गाथाओं के रूप भी मिलते हैं।
अगर आप 'पढाई करने' का समानार्थक देखेंगे तो हिंदी में उसके लिए शिक्षा, विद्या और ज्ञान जैसे शब्द मिलेंगे | कभी सोचा है कि एक ही चीज़ के लिए तीन अलग अलग शब्दों की भला क्या जरुरत ? अगर भाव एक ही है तो भला उसी के लिए नए शब्द की क्या जरुरत पड़ी होगी ! असल में तीनों का मतलब अलग अलग होता है |
शिक्षा वो चीज़ है जो ली या दी जा सकती है | इसके लिए शिक्षक नियुक्त किये जाते हैं | ये वो चीज़ है जिसकी खरीद-बिक्री पर आपको कभी कभी शोर सुनाई देता होगा | विद्या आपको दी नहीं जा सकती, किसी को कोई नहीं दे सकता, आपके पास हो तो आप भी किसी को दे नहीं सकते | विद्याध्यन आपको खुद ही करना पड़ता है | खुद ही सीखेंगे तभी मिलेगी |
तीसरा शब्द ज्ञान बिलकुल निर्बाध है | इसका शिक्षा से कोई लेना देना नहीं होता | आपका परंपरागत तरीकों से किया गया अध्ययन या अभ्यास भी यहाँ काम नहीं आएगा | मतलब विद्या से भी इसका ज्यादा ताल्लुक नहीं है | मगर ये होता है | ऐसा नहीं है कि प्रगतिशील किस्म के लोग इसके होने से इन्कार करेंगे, वो लोग इसे Wisdom के नाम से जानते हैं | एक आखरी वाले बत्तीसवें दांत को भी विजडम टूथ बुलाते हैं |
अगर कोई परंपरागत गुरुकुलों में नहीं गया, या मैकले मॉडल के स्कूल के हिसाब से नहीं पढ़ा है तो उसे मूर्ख मान लेना कई लोगों की आदत होती है | ऐसा कई बार उसी इंडिया में होता है जिस भारत के स्कूलों-कॉलेजों में कबीर, रैदास और कालिदास जैसों का लिखा पढ़ाया जाता है ! धीरे धीरे से इस व्यवस्था में थोड़ा-थोड़ा सा परिवर्तन हो रहा है | यहाँ गौर करने लायक ये भी है कि #दल_हित_चिंतन से अपनी रोज़ी रोटी चलाने वालों को कभी इनकी कविताओं का अनुवाद करने-करवाने की नहीं सूझी !
केवल तीसरी कक्षा तक पढ़े लिखे और काम के लिहाज से होटलों में बर्तन मांजने का काम कर चुके कवी हलधर नाग पर अब तक पांच पीएचडी थीसिस लिखी जा चुकी है | उनकी कोसली भाषा की कविताओं को अब यूनिवर्सिटी में भी पढाया जायेगा |
महाभारत गुरुओं से भरी पड़ी है। यहाँ सब कुछ न कुछ सीखने ही आ जा रहे होते हैं। शुरुआत में कौशिक नाम के ब्राह्मण एक धर्म व्याध से व्याध गीता सीखने जा रहे होते हैं तो अंत के हिस्से में भीष्म शरसैय्या पर लेटे हुए भी करीब दर्ज़न भर गीताएँ सुना देते हैं। ज्यादातर ऐसे प्रसंगों में स्त्रियाँ प्रश्न पूछ रही होती हैं, या जवाब दे रही होती हैं। दार्शनिक मुद्दों पर स्त्रियों का बात करना कई विदेशी अनुवादकों और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की दृष्टि से सही नहीं रहा होगा। शायद इस वजह से ऐसे प्रसंगों को दबा कर सिर्फ युद्ध पर्व के छोटे से हिस्से पर जोर दिया जाता रहा है।
सीधे स्रोत के बदले, कई जगह से परावर्तित होकर आई महाभारत की जानकारी की वजह से आज अगर महाभारत काल के गुरुओं के बारे में सोचा जाए तो सिर्फ दो नाम याद आते हैं। महाभारत में, आपस में साले बहनोई रहे कृपाचार्य और द्रोणाचार्य ही सिर्फ गुरु कहने पर याद आते हैं। कृपाचार्य हस्तिनापुर में कुलगुरु की हैसियत से पहले ही थे, लेकिन वो शस्त्रों की शिक्षा देने के लिए जाने भी नहीं जाते थे और शायद तीन पीढ़ियों में एक पांडु के अलावा कोई अच्छा योद्धा भी नहीं हुआ था, इसलिए ऐसे गुरु की जरूरत भी नहीं पड़ी थी। द्रोण का समय काफी गरीबी में बीत रहा था इसलिए वो आजीविका की तलाश में भटक रहे थे।
अपने पुत्र अश्वत्थामा को दूध दे पाने में असमर्थ अपनी पत्नी को देखकर वो अपने साथ ही शिक्षा पाए राजा द्रुपद से मदद मांगने गए थे। यहाँ (संभवतः अग्निवेश नाम के गुरु के पास) द्रुपद और द्रोण साथ होते हैं। हमें महाभारत से ही पता चलता है कि द्रोण के गुरु परशुराम भी थे। बाद के कई स्वनामधन्य बताते हैं कि परशुराम सबको नहीं, केवल ब्राह्मणों को शिक्षा देते थे। पता नहीं भीष्म जैसों ने परशुराम से शिक्षा क्यों और कैसे पाई। पांचाल से मदद के बदले दुत्कारे जाने पर क्रुद्ध द्रोण हस्तिनापुर में थे जब युद्ध में कुशल भीष्म को उनकी खबर मिल गई। भीष्म के बारे में भी महाभारत बताता है कि वो परशुराम के ही शिष्य थे, ब्राह्मण वो भी नहीं होते।
मगर जितनी आसानी से भीष्म को द्रोण का पता चलता है और वो उन्हें आचार्य बनाते हैं, इस से ये जरूर अंदाजा हो जाता है कि उनके पास एक काफी मजबूत जासूसों का तंत्र था। इतने सजग गुप्तचर जो बच्चों के खेलने पर भी निगाह रखते और कुरु पितामह को सूचित कर रहे होते थे। द्रोण को चुनने में उन्होंने भूल भी नहीं की थी। जैसे परशुराम खुद थे उस से बेहतर उन्होंने अपने शिष्यों को बनाया था। परशुराम के युद्ध में कभी हारने का कोई जिक्र कहीं नहीं आता। सिर्फ एक बार जब युद्ध बिना निर्णय के समाप्त हुआ था तो वो युद्ध उनके अपने ही शिष्य भीष्म से हुआ था।
भीष्म पहले तो परशुराम से लड़ने के लिए तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त और यंत्र मुक्त चारों तरह के हथियारों की शिक्षा उन्होंने परशुराम से ही ली है। लड़ाई इस आधार पर शुरू होती है कि उठे हुए शस्त्र का सामना करना क्षत्रिय धर्म है, भले ही उसमें ब्राह्मण का सामना करना पड़े। इसलिए भीष्म के लिए परशुराम से लड़ना पड़ा। हथियारों के इतने किस्म महाभारत में ? ये महाकाव्य भी है, और महाकाव्य में सेना के संयोजन और उसके प्रस्थान का जिक्र होना भी एक जरूरी लक्षण होता है। उसके बिना वो महाकाव्य ही नहीं होता।
अस्त्र-शस्त्रों का इतना ही वृहद् वर्णन रामायण में भी मिल जाएगा, भगत वाली दृष्टि से देखने और दिखाने वालों ने उसे पढ़ाया-बताया नहीं इसलिए आप नहीं जानते। लड़ाई कई दिन तक चली और अनिर्णीत थी, जब एक दिन विश्वकर्मा के बनाए प्रस्वपन या प्रजापत्य नाम के अस्त्र का संधान करने की सलाह भीष्म को ब्रह्मा ने दी। अगली सुबह इसका भीष्म संधान कर ही रहे थे कि नारद ने आकर उन्हें रोका। नारद की सलाह पर भीष्म ने हथियार वापस तो ले लिया मगर जब परशुराम को पता चला तो उन्होंने कहा कि अगर किसी ने मेरे ऊपर चला शस्त्र ये सोचकर रोक लिया कि मैं उसका सामना नहीं कर पाऊंगा तो मुझे हारा हुआ ही मानना चाहिए। ये सोचकर वो युद्ध आधे में ही रोककर चल दिए।
परशुराम के शिष्यों में सिर्फ भीष्म और द्रोण जैसे ना हारने वाले योद्धा ही नहीं थे। कृष्ण से उनकी दो मुलाकातों का भी जिक्र महाभारत में आता है। एक बार तो कृष्ण जब अपनी नयी राजधानी के लिए स्थान चुन रहे होते हैं तब वो परशुराम से सलाह लेते हैं। परशुराम उन्हें बताते हैं कि द्वारका के लिए वो जिस जगह का चुनाव कर रहे हैं, वो जलमग्न हो जायेगी, लेकिन सुरक्षा के लिहाज से द्वारका ही सर्वोत्तम थी। उसके सिवा किसी और जगह पर परशुराम और कृष्ण एकमत नहीं हो पाए। महाभारत काल के कृष्ण को खांडववन जलाने से ठीक पहले अग्नि आकर सुदर्शन चक्र देते हैं, लेकिन उसे चलाना कृष्ण ने अपने गुरु संदीपनी से नहीं बल्कि परशुराम से सीखा था। परशुराम के ये शिष्य ब्राह्मण नहीं बल्कि वही कृष्ण थे जिन्होंने शिशुपाल पर सुदर्शन चक्र चलाया था। शिशुपाल उस समय श्री कृष्ण को क्षत्रियों के बीच बैठा गाय दुहने वाला, और अन्य तरीकों से नीच घोषित करने पर तुला था।
नाजायज तरीकों से शिक्षा लेने पर गुरु-शिष्य में से एक की मृत्यु होती है, इसी तर्क के साथ महाभारत के शुरुआत में ही उत्तंक अपने गुरु वेद को गुरुदक्षिणा लेने के लिए राजी कर रहा होता है। इस नियम को तोड़ने के लिए ही परशुराम के एक शिष्य को उन्होंने शाप भी दिया था। कोई भी शापित होने के बाद परशुराम के क्षेत्र में नहीं रह सकता था इसलिए कर्ण को अधूरी शिक्षा पर ही लौटना पड़ा था। आज की भाषा में कर्ण ड्रापआउट होते लेकिन फिर भी उन्हें युद्ध में हराने के लिए असाधारण योद्धाओं की जरुरत पड़ती थी। महाभारत के काल के नील, वृष्णि योद्धाओं और भगदत्त के भी कर्ण से (दिग्विजय के दौरान) हारने का जिक्र आता है।
कर्ण के हारने और भागने का जिक्र एक बार पांडवों के वनवास के दौरान आता है। जब पांडवों को चिढ़ाने आये दुर्योधन का वन की सीमा पर ही एक चित्रसेन नाम के गन्धर्व से युद्ध हो जाता है। कर्ण को यहाँ हारकर भागना पड़ता है और दुर्योधन बाँध लिया जाता है, बाद में अर्जुन और भीम आदि पाण्डव आकर दुर्योधन को छुड़ाते हैं। दूसरी बार कर्ण, भीष्म आदि सभी कौरव योद्धा पांडवों के अज्ञातवास के ख़त्म होने के समय अर्जुन से हारते हैं। इस लड़ाई में अर्जुन प्रस्वपन या प्रजापत्य नाम का वही हथियार चला देते हैं जिसे शुरू शुरू में भीष्म ने परशुराम पर नहीं चलाया था। चूँकि कौरवों ने द्रौपदी का वस्त्रहरण करने की कोशिश की थी, इसलिए बेहोश पड़े कौरवों के वस्त्र ले चलने की सलाह भी अर्जुन, राजकुमार उत्तर को देते हैं। बाद में ये लुटे हुए कपड़े वो उत्तरा को गुड़िया बनाने के लिए दे देते हैं।
कर्ण के अर्जुन से हारने का कारण उनका ड्रॉपआउट होने के अलावा अभ्यास की कमी भी रही होगी। आज के दौर में भी शिक्षक (और माता-पिता भी) कई बार जब लिखने और नोट्स लेने की सलाह देते हैं तो आलस के मारे वो एक कान से सुनकर दुसरे से निकाल दी जाती है। कर्ण पर दिव्यास्त्रों का इस्तेमाल भूलने का गुरु का शाप था। अप्रत्यक्ष रूप से अभ्यास की कमी से ये शाप फलीभूत हुआ। एक तरफ अर्जुन उलूपी जैसी नागकन्या, अश्वसेन जैसे नागों से लड़ने का अभ्यास करते हैं, चित्रसेन जैसे गन्धर्वों से लड़ते हैं। हनुमान और शिव जैसे प्रतिद्वंदियों (जहाँ हारना अवश्यंभावी था) से उलझने से भी अर्जुन नहीं चूकते। वो द्रोणाचार्य से सीखने पर ही नहीं रुके, इंद्र से, शिव से भी उन्होंने शिक्षा ली, अप्सराओं से नृत्य भी सीखा और अज्ञातवास में सिखाया। दूसरी तरफ कर्ण बेचारे एक तो मानवों से ऊपर किसी से लड़े नहीं, तो दिव्यास्त्रों के इस्तेमाल का अनुभव नहीं रहा। दुसरे एक बार जब शिक्षा छूट गई, तो फिर से किसी से सीखने की भी कोई ख़ास मेहनत नहीं की। अर्जुन के गाण्डीव से निपटने के लिए विजया नाम का धनुष जुटाने के अलावा उन्होंने कोई विशेष अभ्यास नहीं किया। इसलिए वो अर्जुन से हारते रहे, उनसे हमेशा निम्न रहे।
हथियारों के दक्षिण भारतीय युद्ध कला कलारीपयट्टू में शामिल होने का कारण भी परशुराम को ही बताया जाता है। माना जाता है कि परशुराम से पहले ये कला अगस्त्यमुनि ने सिखाई थी मगर उनके काल में इसमें हथियार इस्तेमाल नहीं होते थे। भारत के कई अजीब से हथियार (जो समय के साथ तेजी से ख़त्म हो रहे हैं) उनके होने का श्रेय परशुराम को ही जाता है। दक्षिण भारत का एक बड़ा सा क्षेत्र आज भी परशुराम क्षेत्र कहलाता है। महाभारत काल के इस गुरु के बाद से गुरुकुलों और युद्धकला सीखने सिखाने के केन्द्रों की जानकारी भी आश्चर्यजनक रूप से लुप्त हो जाती है।
साभार
आनन्द कुमार
Hr. deepak raj mirdha
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
www.deepakrajsimple.blogspot.com
www.swasthykatha.blogspot.com
www.deepakrajsimple.in
deepakrajsimple@gmail.com
www.youtube.com/deepakrajsimple
www.youtube.com/swasthykatha
facebook.com/deepakrajsimple
facebook.com/swasthy.katha
twitter.com/@deepakrajsimple
call or whatsapp 8083299134, 7004782073
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
www.deepakrajsimple.blogspot.com
www.swasthykatha.blogspot.com
www.deepakrajsimple.in
deepakrajsimple@gmail.com
www.youtube.com/deepakrajsimple
www.youtube.com/swasthykatha
facebook.com/deepakrajsimple
facebook.com/swasthy.katha
twitter.com/@deepakrajsimple
call or whatsapp 8083299134, 7004782073
No comments:
Post a Comment