Sunday 25 February 2018

||ट्रांस्फोर्मिंग इनटू कास्ट्स||


भाई Ganga Mahto की धारदार कलम से एक सवाल और जवाब अपेक्षित है 

||ट्रांस्फोर्मिंग इनटू कास्ट्स||

पहले E T Dalton .. फिर H H Risley .. फिर George Grierson .. फिर  J J Hutton .. और इन सब के बीच में मैक्स मुलर !! 

जॉर्ज ग्रियर्सन और मैक्समूलर ने भाषाई आधार पर लोगों की छंटनी की। और HH रिजले और JJ हटन ने नैन-नक्श,शारीरक संरचना, कलर कम्प्लेक्सन्स और सांस्कृतिक, रिलजियस वाइज लोगों की छंटनी की।

अंग्रेजों ने जब जनगणना शुरू की तो सब इसी आधार पे लोगों को केटेगेराइज करना शुरू किया। .. 1872 में बंगाल प्रोविंस में पहली जनगणना की गई। .. फिर पूरे देश में 1881 से शुरू हुई.. जो कि अब तक चलती आ रही है।
सामाजिक,धार्मिक और सांस्कृतिक संरचना आधार रहा।
धर्म में हिन्दू,मुस्लिम, बौद्ध,जैन और सिख !!
लेकिन जब सुदूर इलाकों में जा के जब लोगों से धर्म पूछा गया तो वे अपना धर्म बताने में असमर्थ रहे।... तो जनगणना और एंथ्रोपोलॉजिस्ट वालों को दिक्कत हुई कि इन्हें किसमें रखा जाय? ..  तब शब्द लाया गया .. "Aborigines" !! .. जो किसी धर्म से परे थे वे हुए Aborigines!! .. और ये शब्द अस्तित्व में आया 1901 के जनगणना में!! और 1911 तक ये रहा ।
फिर रिजले के कथनानुसार 1921 में "Animist" शब्द अस्तित्व में आया .. फिर 1931 में जे जे हटन ने "Primitive Tribe" लाया .. और 1941 में 'ट्राइबल हिन्दू ..' इस टाइप का शब्द आया लेकिन ये जनगणना द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण पूरा नहीं हो सका।

इन सब जनगणना में 1931 के जनगणना को समझने की जरूरत है क्योंकि आजाद भारत का आधार यही जनगणना रहा!!
बात तो खैर 1901 के समय से ही शुरू हो गई थी कि "ट्रांस्फोर्मिंग ऑफ ट्राइब इनटू कास्ट्स!"
कास्ट के लिए 'एक्सटीरियर कास्ट' और 'डिप्रेस्ड कास्ट!' 
अब ट्रांस्फोर्मिंग इनटू कास्ट कैसे ??
तो जो ट्राइबल आइडेंटिटी और कल्चर है उसको छोड़ के किसी रिलीजन में जाना !! .. रिलीजन में भी कौन सा तो आगे बताते हैं.. !

हम अपना ही उदाहरण पकड़ते है।
मने "कुड़मी" का! छोटानागपुर के कुड़मी का।
1901 के जनगणना में हमें 'Aborigines' कहा गया .. मने धर्म से बंधे हुए नहीं .. हालांकि ये कहा जरूर गया कि ये आंशिकतः 'ऑर्थोडॉक्स हिन्दू लीनिंग' को मानने वाले कम्युनिटी हैं। ... 1911 में 'Semi-Aborigines' और 1921 में 'Animists' !!
1931 आते-आते 'कास्ट' का फार्मूला 'कुड़मी' पे अप्लाई होने लगा। .. कुछ रिप्रेजेंटेटिव ऐसे भी रहे जिन्होंने 'Animists' कहलाना सही नहीं लगा। .. कलकत्ता लोकल गवर्मेंट ने छोटानागपुर के कुड़मी को 'Depressed Caste ' में रखा।.. तो दो सूची हुई इस प्रकार की हुई , एक 'एकस्टेरियर' और दूसरा 'डिप्रेस्ड'! 
एक्टेरियर कास्ट में वही थे जो आज 'शेड्यूल कास्ट' के रूप में गिने जाते हैं.. मने कि वे ये हुए जो पूर्णतः हिन्दू या बौद्ध धर्म में थे।
'एक्टेरियर कास्ट' में कुछ ऐसे भी कम्युनिटी थे जो पूर्व में 'ANIMISTS'' के रूप में दर्ज थे। उदाहरण खंदैट, शुकली,राजबनशी आदि।.. लेकिन इन्हें पुनः 'ट्राइब्स' के ग्रुप में रखा गया।
'कुड़मी' के साथ भी यही हुआ .. जब रिपोर्ट जे जे हटन के पास पहुंची तो 'कुड़मी' को लोकल गवर्मेंट ने 'डिप्रेस्ड कास्ट' रखा था ... तब रिपोर्ट देख कर हटन ने कुड़मी और 'संताल' के लिए अलग से स्टडी और रिपोर्ट बनाकर भेजने को कहा गया । कुड़मी के लिए WG Lacey और संताल के लिए PO Bodding को नियुक्त किया गया। .. कुड़मी और संताल के लिए अलग से अपेंडिक्स V और VI रखा गया। WG Lacey ने 'The Kurmis of chotanagpur' और PO Bodding ने ' The Santala' लिखा। .. जिसमें कि बॉडिंग की रिपोर्ट बहुत प्रचलित भी हुई संताल स्टडी को ले कर।
इन दोनों रिपोर्ट में कुड़मी और संताल को 'प्रिमिटिव ट्राइब' के रूप में ही रखा गया। कुड़मी और संताल की स्तिथि ज्यादा डिफर नहीं है।

और 1931 का सेंसस ही 1950 के ST लिस्ट का आधार बना।.. जिसमें कुड़मी को छोड़कर बाकी सभी ट्राइब्स जो 1931 में दर्ज थे सभी शामिल कर दिए गए।.. बस उसी को ले के तब से लेकर अब तक आंदोलन हो रहे हैं। और अब तो और उग्र भी।

खैर, छोड़िये .. उसी दौरान मने 1931 में ये भी रिपोर्ट होने लगी कि 'Chrishtanised Tribe ' करके .. मने कि क्रिश्चन की ओर उन्मुख ट्राइब.. जिसमें कि उराँव सबसे पहले नम्बर पे। .. लेकिन ये फिर भी 'ट्राइब' ही रहे।
अब यहाँ ध्यान देने की बात है...
जब एक ट्राइब हिन्दू,बौद्ध की ओर उन्मुख होता है तो उसका ट्राइब टू कास्ट ट्रांस्फोमेशन हो जाता है। .. लेकिन क्रिश्चन की ओर उन्मुख होने से वे ट्राइब ही रहते हैं।
पूरा नार्थ ईस्ट क्रिश्चन में बदल गया लेकिन फिर भी उन सब का ट्राइब टू कास्ट ट्रांस्फोमेशन नहीं हुआ!! .. लेकिन हम 'हिंदुत्व' की ओर झुकने से 'कास्ट' में आ गए । और बाकियों का भी यही हाल!!
आजाद भारत में 'क्रिश्चन ट्राइब' मान्य है लेकिन 'हिन्दू ट्राइब' कतई संभव नहीं है!! 
कारण ??
सुप्रीम कोर्ट दो निर्णय सुनाती हैं .. (चित्र पोस्ट में संलग्न) ..  पहला 
"आदिवासी हिन्दू नहीं है!!" और दूसरा 
"आदिवासी अगर क्रिश्चन बनता है तो वो आदिवासी ही रहेगा!" मने कि ST स्टेटस बरकरार रहेगा।
जब हम डिबेट करेंगे तो हिन्दू आदिवासी कैसे हो सकता है?.. संभव ही नहीं .. सुप्रीम कोर्ट का भी इसके ऊपर निर्णय हैं।
इसके प्रत्युत्तर में जब हम ये कहते कि फिर क्रिश्चन आदिवासी कैसे है तो जवाब मिलता सुप्रीम कोर्ट का निर्णय है, देख लो।
वाह!!!
आजादी के पहले भी 'क्रिश्चन ट्राइब' और अब भी और 'हिन्दू ट्राइब' का कोई ठिकाने नहीं!!
क्योंकि ट्राइब हिन्दू बनते ही स्वतः 'कास्ट' में परिणत हो जाते हैं और ST सूची से बाहर भी ! उदाहरण तमाड़िया मुंडा!
लेकिन पूरे के पूरे एक एक कम्युनिटी क्रिश्चन में तब्दील हो गए उसका ST स्टेटस बरकरार है !!
क्यों भाई ?? ... क्या क्रिश्चयनिटी में कास्ट का लफड़ा नहीं है जो ट्राइब का गुण बरकरार रहता है और हिन्दू बनने में स्वतः ही फुर्र हो जाता है??
सुप्रीम कोर्ट तो ये भी कहता है कि "वन्स अ ट्राइब इज ऑलवेज ट्राइब!" .. तो भैया हिन्दू बनते ही सब काहे खत्म और क्रिश्चन बनने पे सब बरकरार कैसे!!? 

क्या ये ST आयोग को विचार करने की जरूरत नहीं है ?? 
ट्राइब टू कास्ट ट्रांसफॉर्मेशन यूनिडाइरेक्शनल क्यों ?


गंगा महतो


आपने कहीं न कहीं पुराने जमाने के बड़े #कड़ाह देखे होंगे।
ये लोहे के बने होते हैं। इन्हें बनाने वाले स्थानीय कारीगर ही हुआ करते थे। इनको बनाने के लिए लोहे की छोटी छोटी आयताकार चद्दरों को जोड़कर पहले एक रिंगनुमा कड़ा बनाया जाता था। फिर एक के ऊपर दूसरी रिंग जोड़कर उन्हें कड़ाह का आकार दिया जाता था। ये छोटे टुकड़े हस्तनिर्मित कीलों से जोड़े जाते थे जिन्हें मेख कहा जाता है। हाल ही तक, ऐसे कारीगर उपलब्ध थे जो घी चढ़े हुए तपते कड़ाह में भी उखड़ी मेख को वापिस लगा सकते थे।
इन कड़ाहों का उपयोग बड़े आयोजनों में मिठाई रांधने के लिए किया जाता था। सात कड़े वाले कड़ाह का अर्थ था, उसमें सात रिंग्स होते थे। बीस से तीस कड़ों वाले भी कड़ाह होते थे। इनमें तीन से चार मण (एक मण 40 kg का होता है) गेहूँ की लापसी या हलवा पकाया जाता था। ऐसे कड़ाह भी थे जिनमें नौ मण तक दलिया या आटा सेका जाता था। इन विशाल कड़ाहों में चार चार बलिष्ठ व्यक्ति खुरपा घुमाते थे। चार से पांच गज के खुरपे बलपूर्वक जब फिसलते थे तो उनकी घमक तीन कोस तक सुनाई देती थी। इन खुरपों को चाठुआ कहा जाता है, इन्हें एक विशेष लय से घुमाना होता था। ये आगे से लोहे के बने होते थे। कड़ाह के कड़े इस प्रकार से फिक्स होते थे कि वे जाते समय ठीक से फिसल सकें और किसी मेख को #क्षतिग्रस्त न करें।
यूँ तो हलवा शब्द से ही हलवाई बना है, लेकिन उस समय प्रायः सामान्य जन ही यह कार्य करते थे।
                    यह हलवा अथवा लापसी, शुद्ध घी और गुड़ से बना होता था, जिसे जीमने के लिए पूरी न्यात बुलाई जाती थी। जैसा ठोस आहार होता था वैसे ही जीमने वाले भी होते थे। पांच सेर लापसी खाने वाले लोग भी थे, एक बार खा लिया तो पांच दिन बिना खाए भी रह जाते थे।
लौह तत्व रक्तवृद्धि के लिए उत्तम रहता है। कई बार उसमें से घी झरता रहता था। वह घी भी वास्तव में घी था, वह बल भी बल ही था। शुद्ध खान पान का ही असर था कि ऐसे आयोजन में गांव के गांव, दल बल सहित आठ कोस तक पैदल चलकर खाने के लिए पहुँचते थे।
हलवा या लापसी के साथ कई बार चना-चावल भी बनते थे। खडीनों के चने और सिंध के चावल की बात ही कुछ और थी। उन मसालों की महक भी अब तो कहीं खो सी गई है।
आज हर दिन कोई न कोई जीमण होता है पर खाने वाले पता नहीं क्या खा रहे हैं,,,,!!! भव्य चकाचौंध में शक्कर और तेलीय पदार्थों की भरमार सी रहती है। एक एक आइटम भी खा लिया तो दो दिन तक उन्हें पचाना ही भारी पड़ जाता है। अनेक नाम वाले व्यंजनों में स्वाद और सुगंध में कहीं न कहीं बहुत खालीपन रहता है। आडम्बर, प्रदर्शन और भौंडापन के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा यहाँ।
अनेक निमंत्रण होते हुए भी व्यक्ति खाना ही नहीं चाहता। आज का मानव 25% तो स्वयं के लिए खाता है और 75% इसलिए खाता है ताकि डॉक्टर की दुकान चलती रहे। गले तक ठूंस कर खाने के बाद सारी ताकत उसे पचाने में व्यय हो जाती है।
इधर रिफाइंड आयल के नए खुलासे से तो ऐसा लगता है कि हृदय रोग के इलाज में लगी कम्पनियों और तेल के विज्ञापनों में कोई भारी सांठ गांठ है।
आप कब तक बचोगे?
जहाँ जाओगे वहाँ यही तेल घी और मिठाइयां आपका पीछा नहीं छोड़ने वाली।
आप चाहे साउथ इंडियन खाओ या चाइनीज,,,, दस सीढियां चढ़ते ही हांफना आपकी नियति बन गई है।
आप जितना भारत को भूलोगे उतना ही गर्त में जाओगे।
यह शरीर बार बार नहीं मिलता। इसको कचरापात्र बनने से रोकिये। बलशाली बनिए। जिस भाव भी मिले, यदि शुद्ध मिलता है तो उसका उपयोग कीजिए।
गली के नुक्कड़ पर उपेक्षा से औंधे पड़े प्राचीन कड़ाह तिल तिल होकर जंग खा रहे हैं। वे धीरे धीरे मर जाएंगे पर मानव जाति उससे भी तीव्र गति से अपनी बर्बादी की योजना खुद बना रही है। 

Sabhar
केसरीसिंह सूर्यवंशी

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